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लैंगिक लड़ाई से जुड़े अहम फैसलों का साल रहा 2018

लैंगिक लड़ाई से जुड़े अहम फैसलों का साल रहा 2018

05-01-2019 | नीतू रौतेला | Youth Ki Awaaz

बचपन से साल के अंत में 31 दिसंबर को आने वाली साल की मुख्य खबरों में मेरी रूची हमेशा से रही है। छोटे से समय में देश-दुनिया के साल भर का लेखा-जोखा आंखों के सामने तैर जाता है। कई ऐसी घटनाएं होती हैं जिन्हें हम भूलते नहीं हैं। कुछ से आपका कोई जुड़ाव होता है तो कई खबरों से जानकारी का रिश्ता।

आज ऐसे ही खुद से बात करते-करते लगा साल भर में कुछ ऐसे फैसले, कुछ ऐसी खबरें आईं जो भारत में संघर्षरत सामाजिक क्षेत्रों के लिए काफी महत्वपूर्ण रहीं, जिसे शायद ही मुख्य खबरों में वह तवज्ज़ो, पक्ष और आवाज़ मिली होगी जिसकी ज़रूरत है। मैंने सोचा क्यों ना उन खबरों को लिखा-बांटा जाए ताकि न्यायपूर्ण समाज की स्थापना हो सके।

छोटी सी कोशिश कुछ खबरों के साथ क्योंकि सब कुछ यहां उतार पाना संभव नहीं है। इस क्रम में अगर बहुत कुछ छूट जाए तो माफी। आशा है मेरी छोटी सी कोशिश और मकसद कुछ सोच और संघर्ष को मज़बूती देंगे।

हदिया को अपने पति के साथ रहने की इजाज़त

साल की शुरुआत में यह फैसला आया जिसमें हदिया नाम की लड़की जो मूल रूप से हिन्दू थी और जिसने अपनी इच्छा से इस्लाम कबूल करते हुए धर्म परिवर्तन कर मुस्लिम लड़के से शादी की थी। इस चुनाव को चुनाव ना मानते हुए लव-जिहाद से जोड़ा गया और इस निकाह को खारिज करने की अपील की गई। लंबे संघर्ष के बाद यह माना गया कि एक बालिग लड़की को पूरा संवैधानिक हक है कि वह अपना जीवन साथी चुन सके। महिला के ‘राइट टू च्वाइस’ की यह गूंज साल की अच्छी शुरुआत रही।

फारूखी को बलात्कार केस से बरी किया गया

विदेशी छात्रा से रेप के मामले में ‘पीपली लाइव’ फिल्म के सह-निर्देशक महमूद फारूकी को दिल्ली हाइकोर्ट ने बरी कर दिया। महमूद को बरी करने के कई आधारों में से एक था ‘आपसी सहमति का आधार’ जिसने बड़े जद्दोजहद के बाद 2013 के बलात्कार कानून में आई सहमति को इतना सहमा दिया कि उसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया।

गौरतलब है कि दिल्ली हाइकोर्ट ने एफआईआर में हुई देरी को भी आधार बनाया। दरअसल, साकेत कोर्ट के फैसले को फारूकी ने दिल्ली हाईकोर्ट में चुनौती दी थी। साकेत कोर्ट ने फारूकी को 2013 में बने नए कानून के तहत 7 साल की सज़ा सुनाई थी।

तीन तलाक पर बैन/प्रतिबंध

यह बात सच है कि तीन तलाक मुस्लिम महिलाओं के सिर पर लटकती ऐसी तलवार है जो गाहे-बगाहे उसके सिर पर कभी भी गिर सकती है। इससे निज़ात एक बड़ी राहत होगी। साल के अंत तक जारी बहस और राज्यसभा में हाल ही में प्रस्तुतिकरण और पास होने तक गहन और खुली चर्चा में कई बातों और समुदाय की आवाज़ को अनदेखा किया गया।

सोचा जाना चाहिए कि तीन तलाक अगर गैर इस्लामिक और असंवैधानिक प्रक्रिया है तो इसे बैन करने की बजाय जागरूकता लाना ज़्यादा ज़रूरी है। शादी करना और शादी को तोड़ना कानूनी नहीं बल्कि व्यक्तिगत मामला है। फिर इसे आपराधिक श्रेणी में कैसे रखा जा सकता है?

संक्षेप में ऐसे सज़ा के प्रावधान महिलाओं को आगे आकर बोलने से और पीछे ले जाएंगे जहां वह खुद तो जद्दोजहद में रहेंगी ही और उन्हें सामाजिक और पारिवारिक निंदा का डर भी बना रहेगा। हमें यह समझना होगा कि कड़े प्रावधान होने पर न्याय और मुश्किल हो जाते हैं। सबसे बड़ी बात अगर पति को जेल होने की स्थिति में पत्नी के घर या पति के साथ रहने के अधिकार के क्या मायने रह जाएंगे?

रेप लॉ को जेंडर न्युट्रल करने की मांग खारीज़

बलात्कार, गलत मंशा से पीछा करना (स्टॉकिंग) और यौन उत्पीड़न मामले में महिलाओं को भी पुरुषों की तरह दंडित करने की याचिकाको सुप्रीम कोर्ट ने फरवरी 2018 में खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि सामाजिक परिस्थितियों में बदलाव के साथ संसद कानून बनाता है और यह काम संसद पर छोड़ देना चाहिए।

बेटियां भी पैत्रिक सम्पत्ति की हकदार: सुप्रीम कोर्ट (फरवरी 2018)

महिलाओं के सम्पत्ति के अधिकार पर महिला आंदोलन हमेशा से ही आवाज़ उठाता रहा है। यही एक हक है जो बेटियों को बचपन से पराया धन जैसे सोच और शादी के बाद पति द्वारा अपने घर से निकाले जाने वाली हिंसा और धमकी से निज़ाद दिला सकता है।

गौरतलब है कि साल 2005 में केन्द्र सरकार ने ‘हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम’ में संशोधन किया था जिसके तहत बेटियों को भी बराबर हिस्सा देने की बात कही गई थी। फरवरी 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में आदेश देते हुए यह साफ किया कि यह आदेश 2005 से पहले पैदा हुए लड़कियों पर भी लागू होगा।

नाबालिग के बलात्कारी को फांसी की सज़ा (मार्च 2018)

दिल्ली विधानसभा में महिला सुरक्षा को लेकर एक अहम प्रस्ताव पारित किया गया जिसमें नाबालिग से बलात्कार करने पर मौत की सज़ा की मांग की गई जो आगे चलकर अप्रैल माह में एक कानून बन गया।

मातृत्व अवकाश 12 से 26 हफ्ते बढ़ाया गया (जुलाई 2018)

एक तरफ महिला कामगारों के लिए यह एक तोहफा है लेकिन दूसरी ओर इसमें कई बातों की अनदेखी की गई है। जैसे इसमें पारिवारिक अवकाश जिसमें पिता को भी छुट्टी लेने की बात होती ताकि यह पुख्ता किया जा सकता कि बच्चों की देखभाल दोनों का काम है। महिलाएं ज़्यादातर असंगठित क्षेत्रों में काम करती हैं जिसमें इस तरह के प्रावधान कागज़ों तक में नहीं होते।

काम की जगह पर अन्य सुविधाएं जैसे पालना घर आदि पर ज़्यादा ज़ोर देना अधिक प्रभावकारी होता जिसमें महिलाओं के काम मिलने के मौके खतरे में नहीं होते।

बोहरा मुस्लिम महिलाओं में खतने की प्रथा (जुलाई 2018)

मुस्लिम महिलाओं की यौनिकता को काबू में रखने के लिए जो खतने की पितृसत्तामक जानलेवा परंपरा अब तक चली आ रही थी उस पर रोक एक सराहनीय कदम रहा। सुप्रीम कोर्ट ने दाऊदी बोहरा मुस्लिम समुदाय में नाबालिग लड़कियों के खतना (फीमेल जेनिटल म्युटिलेशन यानि कि एफएमजी) पर सवाड़ खड़े करते हुए कहा कि यह महिलाओं के संवैधिनिक अधिकार का उलंघन है।

मुज़फ्फरपुर के बालिका गृह में यौन शोषण (जुलाई 2018)

दर्द और खौफ की इस अंतहीन दास्तान का खुले तौर पर जो असर हुआ वो यह कि सरकारी मशीनरी जागी और ऐसे कई आश्रय गृहों की जांच की गई जिसके नतीजे बड़े शर्मनाक निकले। आने वाले समय में गहन जांच और परिणामों के आधार पर नीति और व्यावहारिक फैसले लिए जाने का उतावलापन दिखता है।

मॉब लिंचिंग पर रोक लगाने के लिए सरकार ने बनाई समिति (जुलाई 2018)

भीड़ द्वारा किसी को भी इल्ज़ाम लगा कर मार देने की बढ़ती घटनाओं के चलते यह खबर काफी महत्वपूर्ण है जो एक तरफ इस बात को स्वीकारती है कि गैर-कानूनी होते हुए भी ऐसा हो रहा है। छोटी सी उम्मीद जिस पर आपातकालीन स्तर पर सख्ती से काम होनी चाहिए।

उल्लेखनीय है कि गृह मंत्रालय ने मॉब लिंचिंग की बढ़ती घटनाओं पर सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद उच्चस्तरीय समिति का गठन किया जिसे ऐसी घटनाओं पर रोक लगाने के लिए चार हफ्ते में सुझाव देना होगा।

पति-पत्नी को शारीरिक संबंध बनाने से ना कहने का हक: हाई कोर्ट (जुलाई 2018)

अदालत ने कहा कि शादी का यह मतलब नहीं है कि शारीरिक संबंध बनाने के लिए महिला हर समय तैयार, इच्छुक और राज़ी हो। पुरुष को यह साबित करना होगा कि महिला ने सहमति दी है। कार्यवाहक चीफ जस्टिस गीता मित्तल ने और जस्टिस सी हरि शंकर की पीठ ने कहा कि शादी जैसे रिश्ते में पुरुष और महिला दोनों को शारीरिक संबंध के लिए ना कहने का अधिकार है।

यह सीधे तौर पर महिला के राइट टू चॉइस और यौनिकता के अधिकार को सुनिश्चित करता है और खास तौर पर मैरिटल रेप मतलब विवाह में होने वाले बलात्कार को निषेध करता है जिसे अब तक कानून या समाज में चर्चा तक के लिए जगह नहीं दी जा रही थी।

सबरीमाला मंदिर में महिलाओं को प्रवेश की अनुमति: सुप्रीम कोर्ट (सितंबर 2018)

सबरीमाला मंदिर

सबरीमाला मंदिर। फोटो साभार: सोशल मीडिया

सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक मंदिर में महिलाओं की एंट्री पर लगी रोक संविधान की धारा 14 का उलंघन है। सुप्रीम कोर्ट के संवैधानिक बेंच के मुताबिक हर किसी को बिना किसी भेदभाव के मंदिर में प्रवेश की अनुमती मिलनी चाहिए।

सेनेटरी नैपकिन से जीएसटी हटी (जुलाई 2018)

लंबे विरोध के बाद यह संभव तो हुआ पर क्या वास्तव में यह माहवारी से जुडी समस्याओं का हल है? माहवारी के दौरान महिलाएं कई तरह की समस्याओं से जुझती हैं। ग्रामीण महिलाओं की बात करें तो उनके पास उतने पैसे भी नहीं होते हैं कि वे पैसे लगाकर सेनेटरी नैपकिन खरीद पाएं। ऐसे में ज़रूरत है कि सरकारें इस दिशा में कोई ठोस कदम के साथ सामने आएं।

धारा 377 समाप्त: सुप्रीम कोर्ट (सितंबर 2018)

LGBTQ+कम्युनिटी में खुशी का माहौल

LGBTQ+कम्युनिटी में खुशी का माहौल। फोटो साभार: सोशल मीडिया

यह एक ऐतिहासिक फैसला रहा जिसने LGBTQ+ समुदाय को बड़ी राहत दी। इस फैसले के ज़रिए समावेशी  समाज की नींव रखी गई जिसमें उन्हें साथी चुनने के व्यक्तिगत और संविधानिक अधिकार को सुनिश्चित किया गया।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा धारा 498A (दहेज़ कानून) में दिया पूर्व फैसला रद्द (सितम्बर 2018)

पिछले साल दिए फैसले जिसमें महिलाओं को दहेज़ कानून के तहत मिलने वाली राहत जैसे तुरंत गिरफ्तारी आदि को रोककर वेलफेयर समिति जैसे गैर व्यावहारिक सुझावों की ओर धकेला गया था। दहेज हिंसा का सीधा अर्थ दहेज हत्या है और ऐसे में यह सुझाव महिला के जीवन को और खतरे में डालने वाले भर थे।

#मीटू अभियान (अक्टूबर 2018)

वैश्विक स्तर पर चलने वाले इस अभियान की गूंज  भारत में भी खासी रही जो शुरू तो मनोरंजन क्षेत्र से हुई मगर जिसकी गूंज हर महिला कामगार की आपबीती में सुनाई दी। कई अर्थों में यह अभियान महत्वपूर्ण रहा जिसने ना केवल सालों से घुटती सिसकियों को स्वर दिया बल्कि सरकारी मशीनरी को भी जीओएम समिति का गठन करने पर विविश किया।

मीटू

मीटू अभियान के समर्थन में लड़कियां। फोटो साभार: सोशल मीडिया

26 साल पहले भंवरी देवी ने जिस बुलंदी से अपने पर होने वाली कार्यस्थल हिंसा को उजाकर किया था, आज देश के कोने-कोने से ऐसे विरोध के स्वर इस अभियान के कारण सुनाई दे रहे हैं। आशा है ज़मीनी स्तर पर भी इसका कोई परिणाम निकले और महिलाओं को एक स्वस्थ हिंसा और भेदभव से रहित कार्यस्थल मिले जहां वे अपने आप को आसानी से साबित कर पाएं।

लोकसभा ने 27 बदलावों के साथ ट्रांसजेंडर बिल पारित किया (दिसंबर 2018)

इस बिल को अभी राज्यसभा में भी पेश करना है जहां इसका काफी विरोध हो रहा है। इस बिल में एक तरफ समुदाय द्वारा दिए गए सुझावों को अनदेखा किया गया है वही ट्रांसजेंडर शब्द को बड़े ही सीमित और नकारत्मक रूप में परिभाषित किया गया है।

सेरोगेसी बिल लोकसभा में पारित (दिसंबर 2018)

किराये की कोख से संबधित कानून को पास किया गया जिसमे सीधे तौर पर यह दावा किया गया कि इस व्यवसाय में जो महिलाएं कार्यरत हैं उनका शोषण कम होगा मगर यह बिल भी अपने आप में विवादस्पद है। परिवार और शादी का महिमामंडन इसके केंद्र में है और इसके बाहर जो लोग हैं उनकी पूरी अनदेखी की गई है।

पुरुषों को भी मिल सकती है 730 दिनों की चाइल्ड केयर लीव (दिसम्बर 2018)

पुरुषों को बच्चे की देखभाल की भूमिका में देखना और स्वीकार करना और गैर शादीशुदा पुरुषों का जिक्र, सराहनीय सोच है। शायद बड़े स्तर पर दोनों साथी बराबरी से इस ज़िम्मेदारी को निभाये वाली सोच और शादी से परे परिवार की सोच को आगे ले जाए। यह दरियादिली केवल सरकारी मुलाज़िमों तक ही सीमित है।

सोचने वाली बात यह है कि क्या सच में हम जिस पितृसत्तात्मक समाज में रहते हैं, जहां पति की मृत्यु के बाद स्त्री को यही समझाने और मानने की पुरज़ोर कोशिश की जाती है कि इस घर का नाम बनाए रखना है। अब इस घर की इज्ज़त तुम्हारे हाथ में है। ऐसी चीज़ें इसलिए कही जाती है ताकि वह फिर से कहीं शादी ना कर ले।

पुरुष को ऐसी ही स्थिति में यह कहा जाता है कि ज़िन्दगी अकेले नहीं कटेगी। उसे कई तरह की बातें कही जाती है ताकि वह जल्द शदी कर ले। वैसे मेरे इस तर्क का मतलब यही है कि समाज भी यही मानता है कि अकेले जीने में स्त्री सक्षम है।

मैंने पहले भी काफी अन्य मुद्दों जैसे एसटी/एससी बिल, एंटी ट्रैफिकिंग बिल, सैनिटेशन (गटर साफे करने वाले) कामगारों की दर्दनाक मौतें आदि जैसी काफी महत्वपूर्ण खबरें हैं जिन्हें मैं शब्द सीमा की वजह से यहां शामिल नहीं कर पा रही हूं। इसका यह मतलब कतई नहीं है कि वो खास नहीं हैं।

खैर, इन झलकियों के लेखे-जोखे के साथ संघर्षों और संघर्षों से उपजी उम्मीदों को साल के अंत में सलाम करते हुए बस इतना की उम्मीद के साथ संघर्ष के लिए तैयार होकर हम फिर जुटेंगे।