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क्या सेनेटरी पैड का टैक्स फ्री होना काफ़ी है?

क्या सेनेटरी पैड का टैक्स फ्री होना काफ़ी है?

30-07-2018 | Neetu Routela | Intersectional Feminism - Desi Style!

आखिरकार पूरे एक साल तक नारिवादिओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं, छात्र-छात्राओं, शिक्षकों और डॉक्टर्स के विरोध के बाद सरकार ने सेनेटरी पैड पर लगाये 12 फीसद टैक्स को हटा दिया| बेशक ये ख़ुशी की बात है जो महिलाओं को उनके मूलभूत अधिकार स्वास्थ्य, सुरक्षा और स्वच्छ जीवन की और बढ़ने की उम्मीद जगाती है| पर क्या सच में ये सभी महिलाओं के लिए ख़ुशी की खबर है? इसपर गौर करने की ज़रूरत है|

असल में सस्ते से सस्ता सेनेटरी पैड करीब 3 रूपये का पड़ता है| भारत जैसे देश में जहाँ एक बड़ा तबका गरीबी और भुखमरी से जूझ रहा है और दूसरी ओर आज भी औरतों को ऐसी परवरिश और उम्मीद से बांधा जाता है, जहाँ वो परिवार में खुद को सबसे पीछे रखें| ऐसे में क्या ये उम्मीद की जा सकती है कि सभी महिलायें हर महीने इस खर्च को वहन कर पाती होंगी? सच्चाई तो ये है कि स्वतंत्र और आधुनिक भारत में आज भी माहवारी पर ना तो बात की जाती है और न उसे बुनियादी जरूरतों में शुमार किया जाता है|

आज भी मोटे तौर पर औरतें माहवारी में इस तरह से जुगाड़ करती है\

1. कपड़ा – जो अच्छा साधन है| पर हर महीने इतना कपडा कहाँ से लायें? तो औरतें इन्हें धोकर फिर से इस्तेमाल करती है| लेकिन जैसा की हम सब जानते है ये बड़ा गोपनीय मामला है जो पैसे देकर भी अख़बार में लपेटकर काली पन्नी में छुपाकर बिना आंखे मिलाये दुकानदार हमें देता है, तो ऐसा कपडा कहाँ धूप में फैलाकर नुमाइश किया जायेगा? नतीजतन इसे किसी अँधेरे कोने में सुखाया जाता है जो कई बार थोड़ा गीला और बेशक हर बार कीटाणुओं से भरा होता है और सेहत पर क्या असर करता होगा कल्पना की जा सकती है|

2. घास या मिट्टी –  जी हाँ| ऐसी भी महिलायें इस देश में हैं जो घास या मिट्टी का इस्तेमाल इस समय में करती है| मैंने जेल में रह रही बहनों के साथ हुई एक जनसुनवाई में सुना था उन्हें माहवारी के दौरान, हर मौसम में गले और कीड़े खाये पुराने कंबल के टुकड़े दिये जाते है| कल्पना में भी ये स्थिति बड़ी दर्दनाक लगती है|

3. कुछ भी नहीं – जी शीर्षक में सही पढ़ा आपने| स्वतंत्र भारत में आज भी महावारी के दौरान कुछ इलाको में दो जून की रोटी के साथ अलग थलग जगहों पर भेज दिया जाता है| बल्कि कुछ जगहों पर महिला इस दौरान किसी पेड़ के नीचे गड्ढा खोद कर बैठी रहती है| जीती जागती सच्चाई के इन संदर्भों की कल्पना मात्र से भी खौफ लगता है| संक्षेप में कह सकते है कि कुछ ही खुशकिस्मत महिलायें हैँ जो अब भी 12 फीसद टैक्स की छूट के बात इन पैड का इस्तेमाल कर पायेंगी| तो क्या इस अधूरी ख़ुशी को पूरा करने के लिये हमें अपने संघर्ष को जारी रखकर  इस बुनियादी जरुरत को नि:शुल्क दिये जाने पर ज़ोर नहीं लगाना चाहिये?

हक़ की मांग करना या नीति बनाने पर दबाव देना अधूरा बदलाव है|

नि:शुल्क सुविधा पर याद आया, स्कूलों में किशोरियों को सेनेटरी पैड निशुल्क दिये जाते है| आप सब को पता ही होगा कई शोधों से ये बात साबित हुई है कि किशोरियों का ड्राप आउट माहवारी से गहरे जुड़ा हुआ है| इसलिये ये योजना शुरू की गयी थी| वैसे तो इस योजना की या फिर सेनेटरी पैड वेंडिंग मशीन योजना की कई खामियां है जिसपर गहन चर्चा और खोज की जानी चाहिए पर एक बड़ी ही रोचक और हास्यपद बात मुझे बस हाल ही में पता चली| इस आशय से यहाँ लिख रही हूँ क्या पता आगे की हमारी मांगो को वास्तविकता की ज़मीन पर और मजबूती दे|

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मुझे मौका मिला स्कूलों में बांटे जाने वाले इन पैड्स को देखने का, जिस बच्ची ने ये दिखाया था, सीधा कहा ये मेरे काम का नहीं है आप रख लो| इसके कारण साफ़ थे| पहला था, ‘पैड की साइज’ ना जाने किस सोच के तहत ये खास साइज के छोटे पैड्स खासतौर पर बनवाये गये है जिसके लम्बाई और चौड़ाई किसी भी सामान्य नेपकिन से कम थी, जो खासी असुविधाजनक था| दूसरा था, ‘इतने पतले है’ कि घंटे दो घंटे से ज्यादा नहीं चल सकते| इन दोनों के कारणों से इन्हें इस्तेमाल करना मिट्टी जैसा ही है जिसकी लीपापोती बार-बार की जाये|  मेरे दिमाग में तो यही आया कि क्या इन पैड्स को साधन के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है कि अल्हड़, आज़ाद, देह की गुलामी से अनजान बच्चियां सीखे कि कम में गुजारा करना, शरीर को सिकुड़ाना, शांत बैठना| अब इस साइज और कागज़ी बनावट से कोई किशोरी खुलकर तो रहने से रही|

स्वतंत्र और आधुनिक भारत में आज भी माहवारी पर ना तो बात की जाती है और न उसे बुनियादी जरूरतों में शुमार किया जाता है|

इस बात से जो मुझे समझ आया वो ये कि हक़ की मांग करना या नीति बनाने पर दबाव देना अधूरा बदलाव है| अगर सच में हमें औरतों और किशोरियों की ज़िन्दगी में इन योजनाओं का असर देखना है तो नीति बनाने से लेकर उसकी छोटी से छोटी बारीकी में घुसना होगा| तभी जिस हक़ और सुकून की हम मांग कर रहे हैं वो हमें मिल सकता है| वरना पितृसत्ता से ग्रसित ये निर्माता या तो नीतियां कागज़ों में बनायेंगे या हवा में, जिनका ज़मीन जरूरतों और सच्चाइयों से कोई नाता नहीं होगा और जिसमें सीधे-सीधे उनका दोष भी नहीं है क्यूंकि ना तो उन्हें इस चक्र का पता है ना उनके अंदर बसी पितृसत्ता उन्हें इस बारे में खुलकर बात करने और समझने की इजाज़त देती है|

 

लेखः नीतू रौतेला